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Kanyadan Class 10 Summary कन्यादान कविता का सार

कितना प्रामाणिक था उसका दुख लड़की को दान में देते वक्त जैसे वही उसकी अंतिम पूँजी हो भावार्थ – उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने कन्यादान करते वक्त एक माता के दुःख का बड़े ही सुंदर तरीके से वर्णन किया हैं। कवि कहते हैं कि कन्यादान करते वक्त या बेटी की विदाई करते वक्त माँ का दुःख बड़ा ही स्वाभाविक व प्रामाणिक होता हैं। दरअसल बेटी ही माँ के सबसे निकट व उसके जीवन के सुख-दुःख में उसकी सच्ची सहेली होती हैं । अब जब वही उससे दूर जा रही है। तो माँ को कन्यादान करते वक्त ऐसा लग रहा है मानो वह अपने जीवन की सबसे अनमोल “आख़िरी पूँजी” को दान करने जा रही है। लड़की अभी सयानी नहीं थी अभी इतनी भोली सरल थी कि उसे सुख का आभास तो होता था लेकिन दुख बाँचना नहीं आता था पाठिका थी वह धुँधले प्रकाश की कुछ तुकों और कुछ लयबद्ध पंक्तियों की भावार्थ  – उपरोक्त पंक्तियों में कवि ऋतुराज कहते हैं कि लड़की अभी इतनी सयानी या परिपक्व नहीं हुई हैं कि वह दुनियादारी की बातों को समझ सकें ।  वह अभी भी एकदम भोली भाली व मासूम ही है।उसने  अपने मायके में सिर्फ सुखों और खुशियों को ही देखा है। इसीलिए उसे जीवन में आने वाले दुख और परेशानियों के

उत्साह और अट नहीं रही क्षितिज भाग - 2 भावार्थ

  उत्साह प्रस्तुत कविता एक आह्वाहन गीत है। इसमें कवि बादल से घनघोर गर्जन के साथ बरसने की अपील कर रहे हैं। बादल बच्चों के काले घुंघराले बालों जैसे हैं। कवि बादल से बरसकर सबकी प्यास बुझाने और गरज कर सुखी बनाने का आग्रह कर रहे हैं। कवि बादल में नवजीवन प्रदान करने वाला बारिश तथा सबकुछ तहस-नहस कर देने वाला वज्रपात दोनों देखते हैं इसलिए वे बादल से अनुरोध करते हैं कि वह अपने कठोर वज्रशक्ति को अपने भीतर छुपाकर सब में नई स्फूर्ति और नया जीवन डालने के लिए मूसलाधार बारिश करे।            आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादल को देखकर कवि को लगता है की वे बेचैन से हैं तभी उन्हें याद आता है कि समस्त  धरती भीषण गर्मी से परेशान है इसलिए आकाश की अनजान दिशा से आकर काले-काले बादल पूरी तपती हुई धरती को शीतलता प्रदान करने के लिए बेचैन हो रहे हैं। कवि आग्रह करते हैं की बादल खूब गरजे और बरसे और सारे धरती को तृप्त करे। अट नहीं रही  है प्रस्तुत कविता में कवि ने फागुन का मानवीकरण चित्र प्रस्तुत किया है। फागुन यानी फ़रवरी-मार्च के महीने में वसंत ऋतू का आगमन होता है। इस ऋतू में पुराने पत्ते झड़ जाते हैं और नए पत्ते आते हैं। र

राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद क्षितिज भाग - 2 भावार्थ

  भावार्थ नाथ संभुधनु भंजनिहारा, होइहि केउ एक दास तुम्हारा।। आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।। सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई।। सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।। सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥ सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥ बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥ एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥ रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार। धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।।  अर्थ - परशुराम के क्रोध को देखकर श्रीराम बोले - हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोडऩे वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते। यह सुनकर मुनि क्रोधित होकर बोले की सेवक वह होता है जो सेवा करे, शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे। परशुराम के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और उनका अपमान करते हुए बोले- बचपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ

पद क्षितिज भाग - 2 भावार्थ

  पद क्षितिज भाग - 2 भावार्थ (1) उधौ, तुम हौ अति बड़भागी। अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी। पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी। ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी। प्रीति-नदी में पाँव न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी। 'सूरदास' अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी। अर्थ - इन पंक्तियों में गोपियाँ उद्धव से व्यंग्य करती हैं, कहती हैं कि तुम बहुत ही भाग्यशाली हो जो कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम और स्नेह से वंचित हो। तुम कमल के उस पत्ते के समान हो जो रहता तो जल में है परन्तु जल में डूबने से बचा रहता है। जिस प्रकार तेल की गगरी को जल में भिगोने पर भी उसपर पानी की एक भी बूँद नहीं ठहर पाती,ठीक उसी प्रकार तुम श्री कृष्ण रूपी प्रेम की नदी के साथ रहते हुए भी उसमें स्नान करने की बात तो दूर तुम पर तो श्रीकृष्ण प्रेम की एक छींट भी नहीं पड़ी। तुमने कभी प्रीति रूपी नदी में पैर नही डुबोए। तुम बहुत विद्यवान हो इसलिए कृष्ण के प्रेम में नही रंगे परन्तु हम भोली-भाली गोपिकाएँ हैं इसलिए हम उनके प्रति ठीक उस तरह आकर्षित हैं जैसे चीटियाँ गुड़ के प्रति आकर्षित होती हैं। हमें उनके प्रेम मे